महात्मा गांधी के पत्रकारीय लेखन की शुरुआत लंदन से जोसिया ओल्डफील्ड के संपादन में छपनेवाली साप्ताहिक पत्रिका 'द वेजेटेरियन' से हुई थी। उस पत्रिका के 07-02-1891 के अंक में 'भारतीय अन्नाहारी' शीर्षक गांधीजी के लेख की पहली किस्त छपी जिसमें उन्होंने कहा था, "भारत में ढाई करोड़ लोग निवास करते हैं। वे भिन्न भिन्न जातियों और धर्मों के हैं। व्यवहार में प्रायः सभी भारतीय अन्नाहारी अथवा निरामिषाहारी हैं।" 'द वेजेटेरियन' के 14-02-1891 के अंक में 'भारतीय अन्नाहारी' की दूसरी, 21-02-1891 को तीसरी, 28-02-1891 को चौथी, 07-03-1891 को पांचवीं और 14 मार्च 1891 को 'भारतीय अन्नाहारी' की छठी किस्त छपी। गांधी जी ने 'कुछ भारतीय त्यौहार' शीर्षक लेख 'द वेजेटेरियन' के 28-03-1891, 04-04-1891, 25-04-1891 के अंकों में तीन किस्तों में लिखा। गांधीजी ने 'वेजटेरियन मेसेंजर' के एक जून 1891 के अंक में 'भारत के आहार' शीर्षक लंबा लेख भी लिखा। 'वेजेटेरियन' में छपे गांधीजी के लेख संपूर्ण गांधी वाडमय के प्रथम खंड में संकलित हैं। वे पत्रकारीय लेख तब लिखे गए थे जब गांधीजी लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे थे। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधीजी 1891 में भारत लौटे। 1893 में एक कानूनी काम मिलने पर वे दक्षिण अफ्रीका गए। वहां जाते ही उन्हें रंगभेद के एक नहीं, अनेक अनुभव हुए। उन्होंने वहां रहकर जातीय पूर्वाग्रहों के खिलाफ संघर्ष करने का फैसला किया। दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतवंशियों के अधिकारों की रक्षा के लिए गांधीजी ने 04 जून 1903 को साप्ताहिक समाचार पत्र 'इंडियन ओपिनियन' निकाला। मदनजीत व्यावहारिक नामक एक गुजराती सज्जन के प्रेस से वह छपा। गांधीजी ने अपनी पुस्तक 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' में लिखा है, "दक्षिण अफ्रीका में सर्वप्रथम हिन्दुस्तानी प्रेस खोलने का श्रेय श्री मदनजीत व्यावहारिक नामक एक गुजराती सज्जन को है।"1'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा' पुस्तक में भी गांधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' का विवरण दिया है। उन्होंने लिखा है, "श्री मदनजीत ने 'इंडियन ओपिनियन' अखबार निकालने का विचार किया। उन्होंने मेरी सलाह और सहायता मांगी। छापाखाना तो वे चला ही रहे थे। अखबार निकालने के विचार से मैं सहमत हुआ। सन् 1904 में इस अखबार का जन्म हुआ। मनसुखलाल नाजर इसके संपादक बने। पर संपादन का सच्चा बोझ तो मुझ पर ही पड़ा। मेरे भाग्य में प्रायः हमेशा दूर से ही अखबार की व्यवस्था संभालने का योग रहा है।" 2
गांधीजी ने आत्मकथा में 'इंडियन ओपिनियन' का प्रकाशन वर्ष भूलवश 1904 दिया है। 'इंडियन ओपिनियन' 1904 में नहीं, 1903 में निकला था। मनसुखलाल नाजर पर संपादन का सच्चा भार भले न हो, उनके प्रति गांधीजी ऊंची श्रद्धा रखते थे। गांधीजी ने लिखा है, "मनसुखलाल नाजर संपादक का काम न कर सकें, ऐसी कोई बात नहीं थी। उन्होंने देश में कई अखबारों के लिए लेख लिखे थे, पर दक्षिण अफ्रीका के अटपटे प्रश्नों पर मेरे रहते उन्होंने स्वतंत्र लेख लिखने की हिम्मत नहीं की। उन्हें मेरी विवेक-शक्ति पर अत्यधिक विश्वास था। अतएव जिन-जिन विषयों पर कुछ लिखना जरूरी होता, उन पर लिखकर भेजने का बोझ वे मुझ पर डाल देते थे।"3गाधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' की पहली संपादकीय का शीर्षक दिया था 'आवरसेल्व्स'। उसका गुजराती, हिंदी और तमिल खंडों में अनुवाद भी छपा था। हिंदी अनुवाद अपनी बात शीर्षक से छपा था। उसमें गांधीजी ने उस समाचार पत्र की आवश्यकता और उसके उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया था। उन्होंने लिखा था, "इस समाचार पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है। भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है; इसलिए उसकी भावनाओं को प्रकट करनेवाले और विशेष रूप से उसके हित में संलग्न समाचार पत्र का प्रकाशन अनुचित नहीं समझा जाएगा। बल्कि हम समझते हैं कि उससे एक बड़ी कमी पूरी होगी।" 4 प्रवेशांक में ही गांधीजी ने 'दक्षिण अफ्रीका के ब्रिटिश भारतीय' शीर्षक टिप्पणी में रंगभेद के प्रश्न को शिद्दत से उठाते हुए लिखा था, "दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानी सामाजिक और अन्य अन्य तमाम दृष्टियों से अछूत से बने हुए हैं; कहीं कम, कहीं ज्यादा। वहां उन्हें तिरस्कारपूर्वक कुली कहा जाता है। वास्तव में वहां के लोग साधारणतया गंदे जीव मानते हैं जिनमें किसी सद्गुण का लेश मात्र भी नहीं हो सकता।" 5
'इंडियन ओपिनियन' पहले चार भाषाओं- अंग्रेजी, गुजराती, तमिल और हिन्दी में प्रकाशित होता था। बाद में तमिल और हिन्दी संस्करण बंद कर दिए गए। उसका कारण गांधीजी ने इस प्रकार बताया है, "तमिल और हिन्दी का बोझ हर तरह से अधिक लगने के कारण, खेत पर रह सकें, ऐसे तमिल और हिन्दी लेखक न मिलने के कारण और इन दो भाषाओं के लेखों पर अंकुश न रह सकने के कारण वे दो विभाग बन्द कर दिए गए और अंग्रेजी तथा गुजराती विभाग जारी रखे गए।" 6 अखबार में घाटा को रोकने के लिए उसमें काम करने वाले लोगों को साझेदार या साझेदार जैसा बनाकर एक खेत खरीद कर उसमें उन सबको बसाया गया। वह खेत डरबन से 13 मील दूर एक पहाड़ी पर था। उसके निकट का फिनिक्स रेलवे स्टेशन खेत से 3 मील दूर था। गांधीजी ने लिखा है, "सत्याग्रह की लड़ाई शुरू हुई, तब गुजराती और अंग्रेजी भाषाओं में 'इंडियन ओपिनियन' निकलता था। खेत पर बस कर संस्था में काम करने वाले लोगों में गुजराती, हिन्दी भाषी (उत्तर भारतीय), तमिल और अंग्रेज सभी थे। श्री मनसुखलाल नाजर की असामयिक मृत्यु के बाद एक अंग्रेज मित्र हर्बर्ट किचन 'इंडियन ओपिनियन' के संपादक बने। उनके बाद संपादक के पद पर श्री हेनरी पोलाक ने लम्बे समय तक कार्य किया। मेरे और श्री पोलाक के जेल-निवास के दिनों में भले पादरी जोसफ डोक अखबार के संपादक रहे।" 7 'इंडियन ओपिनियन' ने क्या कार्य किए और किस तरह वह सत्याग्रह की लड़ाई का साधन बना, इसका वृत्तांत भी गांधीजी ने दिया है, "इस अखबार के द्वारा कौम के लोगों को हर सप्ताह के संपूर्ण समाचारों से अच्छी तरह परिचित रखा जा सकता था। साप्ताहिक के अंग्रेजी विभाग द्वारा ऐसे हिन्दुस्तानियों को सत्याग्रह की थोड़ी-बहुत तालीम मिलती थी, जो गुजराती नहीं जानते थे और हिन्दुस्तान, इंग्लैंड तथा दक्षिण अफ्रीका के अंग्रेजों के लिए तो 'इंडियन ओपिनियन' एक साप्ताहिक समाचार पत्र की गरज पूरी करता था। मेरा यह विश्वास है कि जिस लड़ाई का मुख्य आधार आंतरिक बल पर है, वह लड़ाई अखबार के बिना लड़ी जा सकती है परन्तु इसके साथ मेरा यह अनुभव भी है कि 'इंडियन ओपिनियन' के होने से हमें अनेक सुविधाएं प्राप्त हुईं, कौम को आसानी से सत्याग्रह की शिक्षा दी जा सकी और दुनिया में जहां कहीं भी हिन्दुस्तानी रहते थे, वहां सत्याग्रह सम्बन्धी घटनाओं के समाचार फैलाए जा सके। यह सब अन्य किसी साधन से शायद संभव न होता। इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सत्याग्रह की लड़ाई लड़ने के साधनों में 'इंडियन ओपिनियन' भी एक अत्यन्त उपयोगी और प्रबल साधन था।" 8
गांधी जी का दृढ़ मत था कि अखबार विज्ञापन के बल पर नहीं, अपितु ग्राहकी के बल पर चलाया जाना चाहिए। 'इंडियन ओपिनियन' के ही संदर्भ में उन्होंने लिखा है, "पहले उस साप्ताहिक में विज्ञापन लिए जाते थे। प्रेस में बाहर का फुटकर काम भी छापने के लिए स्वीकार किया जाता था। मैंने देखा कि इन दोनों कामों में हमारे अच्छे से अच्छे आदमियों को लगाना पड़ता था। विज्ञापन लेने ही हों तो कौन से विज्ञापन लिए जाएं और कौन से न लिए जाएं, इसका निर्णय करने में हमेशा ही धर्म संकट खड़े होते थे। इसके सिवा, किसी आपत्तिजनक विज्ञापन को न लेने का मन हो, परन्तु विज्ञापन देने वाला कौम का कोई अग्रगण्य व्यक्ति हो, तो उसके बुरा मान जाने के भय से भी हमें न लेने योग्य विज्ञापन लेने के प्रलोभन में फंसना पड़ता था। विज्ञापन प्राप्त करने में और छपे हुए विज्ञापनों के पैसे वसूल करने में हमारे अच्छे से अच्छे आदमियों का समय खर्च होता था और विज्ञापनदाताओं की खुशामद करनी पड़ती सो अलग। इसके साथ यह विचार भी आया कि यदि अखबार पैसा कमाने के लिए नहीं, बल्कि केवल कौम की सेवा के लिए ही चलाना हो, तो वह सेवा जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए। कौम चाहे तो ही उसकी सेवा हमें करनी चाहिए। और कौम की इच्छा का स्पष्ट प्रमाण यही माना जाएगा कि कौम के लोग काफी बड़ी संख्या में साप्ताहिक के ग्राहक बनकर उसका खर्च उठा लें। इसके सिवा, हमने यह भी सोचा कि अखबार चलाने के लिए उसका मासिक खर्च निकालने की दृष्टि से कुछ व्यापारियों को सेवाभाव के नाम पर अपने विज्ञापन देने की बात समझाने की अपेक्षा यदि कौम के आम लोगों को 'इंडियन ओपिनियन' खरीदने का कर्तव्य समझाया जाए तो वह ललचाने वाले लोगों और ललचाये जाने वाले लोगों दोनों के लिए कितनी सुन्दर शिक्षा हो सकती है? इन सारी बातों पर हमने सोच विचार किया और उस पर तुरन्त अमल भी किया। इसका नतीजा यह हुआ कि जो कार्यकर्ता विज्ञापन विभाग की झंझटों में फंसे रहते थे, वे अब अखबार को सुन्दर बनाने के प्रयत्नों में लग गए। कौम के लोग तुरन्त समझ गए कि 'इंडियन ओपिनियन' की मालिकी और उसे चलाने की जिम्मेदारी दोनों उनके हाथ में है। इसके फलस्वरूप हम सब कार्यकर्ता निश्चिन्त हो गए। कौम अखबार की मांग करे, तब तक उसे निकालने के लिए पूरी मेहनत करने की चिन्ता ही हमारे सिर पर रह गई।" 9 गांधीजी का मानना था कि ग्राहकी के लिए पाठकों से निवेदन करने में कोई हर्ज नहीं। उन्होंने लिखा है, "किसी भी हिन्दुस्तानी का हाथ पकड़ कर उससे 'इंडियन ओपीनियन' का ग्राहक बनने की बात कहने में हमें लज्जा नहीं आती थी, बल्कि ऐसा कहना हम अपना धर्म समझते थे। 'इंडियन ओपिनियन' की आंतरिक शक्ति में और उसके स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और वह एक महाशक्ति बन गया। उसकी ग्राहक-संख्या, जो सामान्यतः 1200 से 1500 तक रहती थी, दिनों-दिन बढ़ने लगी। उसका वार्षिक चन्दा हमें बढ़ाना पड़ा फिर भी जब सत्याग्रह की लड़ाई ने उग्र रूप धारण किया, उस समय उसके ग्राहकों की संख्या 3500 तक पहुंच गई थी। 'इंडियन ओपिनियन' के पाठकों की संख्या अधिक से अधिक 20000 मानी जा सकती हैं। इतने पाठकों के बीच उसकी 3000 से ऊपर प्रतियां बिकना आश्चर्यजनक फैलाव कहा जाएगा।" 10
'इंडियन ओपिनियन' ऐसा अखबार निकला कि पाठक उसका बेसब्री से इंतजार करते थे। गांधीजी ने लिखा है, "कौम ने 'इंडियन ओपिनियन' को इस हद तक अपना बना लिया था कि यदि निश्चित समय पर उसकी प्रतियां जोहानिसबर्ग न पहुंचतीं, तो मुझ पर शिकायतों की झड़ी लग जाती थी। प्राय: रविवार को सुबह अखबार जोहानिसबर्ग पहुंच जाता था। मैं जानता हूं कि बहुत से हिन्दुस्तानी अखबार पहुंचने पर सबसे पहला काम उसके गुजराती विभाग को आदि से अंत तक पढ़ जाने का करते थे। एक आदमी पढ़ता था और दस-पन्द्रह आदमी उसके आसपास बैठकर सुनते थे। हम गरीब ठहरे, इसलिए कुछ लोग साझे में भी 'इंडियन ओपिनियन' खरीदते थे।" 11
'इंडियन ओपिनियन' में विज्ञापन और बाहर से मिलनेवाले फुटकर काम प्रेस में बंद करने का परिणाम अच्छा रहा। गांधीजी ने लिखा है, "प्रेस में बाहर का फुटकर काम लेना उसी तरह बंद कर दिया गया था, जिस तरह विज्ञापन लेना बन्द कर दिया गया था। उसे बन्द करने के कारण प्राय: वैसे ही थे जैसे विज्ञापन न लेने के थे। यह काम बन्द करने से कंपोजिटरों का जो समय बचा, उसका उपयोग प्रेस द्वारा पुस्तकें प्रकाशित करने में हुआ और कौम जानती थी कि पुस्तकें प्रकाशित करने का हमारा उद्देश्य धन कमाना नहीं था। चूंकि ये पुस्तकें केवल लड़ाई को सहायता पहुंचाने के लिए ही छापी जाती थीं, इसलिए उनकी बिक्री भी अच्छी होने लगी। इस प्रकार 'इंडियन ओपिनियन' और प्रेस दोनों ने सत्याग्रह की लड़ाई में भाग लिया और यह स्पष्ट रूप से देखा गया था कि जैसे-जैसे सत्याग्रह की जड़ कौम में जमती गई, वैसे-वैसे सत्याग्रह की दृष्टि से साप्ताहिक और उसके प्रेस की नैतिक प्रगति भी होती गई।"12लेकिन नैतिक प्रगति के बावजूद एक समय 'इंडियन ओपिनियन' की आर्थिक प्रगति पर प्रश्नचिह्न लगा था और स्वयं गांधीजी को आर्थिक व्यवस्था करनी पड़ती थी। गांधीजी नेलिखा है, 'मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि इस अखबार में मुझे कुछ अपने पैसे लगाने पड़ेंगे। लेकिन कुछ ही समय में मैंने देखा कि अगर मैं पैसे न दूं, तो अखबार चल ही नहीं सकता। मैं अखबार का संपादक नहीं था। फिर भी हिन्दुस्तानी और गोरे दोनों यह जानने लग गए थे कि उसके लेखों के लिए मैं ही जिम्मेदार था। अखबार न निकलता तो भी कोई हानि न होती। पर निकालने के बाद उसके बंद होने से हिन्दुस्तानियों की बदनामी होगी और समाज को हानि पहुंचेगी, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ। मैं उसमें पैसे उड़ेलता गया और कहा जा सकता है कि आखिर ऐसा भी समय आया, जब मेरी पूरी बचत उसी पर खर्च हो जाती थी। मुझे ऐसे समय की याद है, जब मुझे हर महीने 75 पौंड भेजने पड़ते थे।" 13
इन सबके बावजूद सबसे अच्छी बात यह थी कि'इंडियन ओपिनियन' में अपनी भूमिका को लेकर गांधीजी के मन में गहरा संतोष था। उन्होंने लिखा है, "इतने वर्षों के बाद मुझे लगता है कि इस अखबार ने हिन्दुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की है। इससे धन कमाने का विचार तो शुरू से ही किसी का नहीं था। जब तक वह मेरे अधीन था, उसमें किए गए परिवर्तन मेरे जीवन में हुए परिवर्तनों के द्योतक थे। उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उड़ेलता था और जिसे मैं सत्याग्रह के रूप में पहचानता था, उसे समझाने का प्रयत्न करता था। जेल के समयों को छोड़कर दस वर्षों के अर्थात् सन् 1914 तक के 'इंडियन ओपिनियन' के शायद ही कोई अंक ऐसे होंगे, जिनमें मैंने कुछ लिखा न हो। इनमें मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता।" 14 गांधी जी की इस टिप्पणी से आज के पत्रकार यह सीख ले सकते हैं कि उन्हें एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले या किसी को खुश करने के लिए नहीं लिखना चाहिए। न अतिशयोक्ति करनी चाहिए।
गांधीजी पत्रकारों को सीख देते हैं तो पत्रकारिता से स्वयं भी सीखते हैं। 'इंडियन ओपिनियन' ने गांधीजी को संयम सिखाया। उन्होंने खुद लिखा है, "मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ था। मित्रों के लिए वह मेरे विचारों को जानने का माध्यम बन गया था। आलोचकों को उसमें से आलोचना के लिए बहुत कम सामग्री मिल पाती थी। मैं जानता हूं कि उसके लेख आलोचकों को अपनी कलम पर अंकुश रखने के लिए बाध्य करते थे। इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी। पाठक समाज इस अखबार को अपना समझकर इसमें से लड़ाई का और दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों की दशा का सही हाल जानता था।" 15 गांधीजी को इसका गहरा बोध था कि अखबार संपादक का नहीं, पाठक का होता है। संपादक और पाठक के संबंध के बारे में गांधीजी ने लिखा है, "इस अखबार के द्वारा मुझे मनुष्य के रंग-बिरंगे स्वभाव का बहुत ज्ञान मिला। संपादक और ग्राहक के बीच निकट का और स्वच्छ सम्बन्ध स्थापित करने की ही धारणा होने से मेरे पास हृदय खोलकर रख देनेवाले पत्रों का ढेर लग जाता था। उसमें तीखे, कड़वे, मीठे यों भांति-भांति के पत्र मेरे नाम आते थे। उन्हें पढ़ना, उन पर विचार करना, उनमें से विचारों का सार लेकर उत्तर देना, यह सब मेरे लिए शिक्षा का उत्तम साधन बन गया था। मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानो इसके द्वारा मैं समाज में चल रही चर्चाओं और विचारों को सुन रहा होऊं। मैं संपादक के दायित्व को भलीभांति समझने लगा और मुझे समाज के लोगों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ, उसके कारण भविष्य में होनेवाली लड़ाई संभव हो सकी, वह सुशोभित हुई और उसे शक्ति प्राप्त हुई।" 16
गांधीजी की पत्रकारिता से पत्रकार यह सीख भी ले सकते हैं कि उन्हें स्वयं पर अंकुश रखना चाहिए। गांधीजी ने लिखा है, "'इंडियन ओपिनियन' के पहले महीने के कामकाज से ही मैं इस परिणाम पर पहुंच गया था कि समाचार पत्र सेवा भाव से ही चलाने चाहिए। समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डूबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है, तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है। अंकुश तो अंदर का ही लाभदायक हो सकता है। यदि यह विचारधारा सच हो, तो दुनिया के कितने समाचार पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे? कौन किसे निकम्मा समझे? उपयोगी और निकम्मे दोनों साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनुष्य को अपना चुनाव करना होगा।"17गांधी जी की कसौटी पर खरा नहीं उतरनेवाले जाहिर है कि निरंकुश और निकम्मी पत्रकारिता की श्रेणी में आएंगे।
गांधी जी ने 'इंडियन ओपिनियन' में रंगभेद के प्रश्न को बार-बार और जोर-शोर से उठाया। 'इंडियन ओपिनियन' के आठ अक्टूबर 1903 के अंक में उन्होंने लिखा, "क्या हम महामान्य और उनकी सरकार से क्षणभर रुककर सोचने के लिए नहीं कह सकते? घोषणा से इतना तो प्रकट है कि हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा है। जिस हृदय में ऐसी श्रद्धा निवास करती है, क्या उसके लिए एक समस्त जाति को, महज इसलिए कि उसकी चमड़ी का रंग उस व्यक्ति की चमड़ी के रंग से जुदा है, निंदित बताना सुसंगत है, जबकि दोनों एक ही राजा के प्रति राजभक्ति के बंधनों से बंधे हैं? क्या ब्रिटिश भारतीयों ने ऐसी कोई बुराई की है जिससे उन्हें इतना अपमानित करना उचित हो जितने कि उपनिवेश में किए जाते हैं? किंतु अश्वेत लोगों के प्रति इस जिहाद को जारी ही रखना है तो झूठमूठ विनय का नाम लेकर प्रार्थना के लिए मुकर्रर करके ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध क्यों करते हैं?"18गांधी जी ने 'इंडियन ओपिनियन', 16-04-1904 के अंक में रंगभेद के प्रश्न को फिर उठाया। उन्होंने लिखा, "आरेंज रिवर उपनिवेश के 31 मार्च के गजट में कहा गया है कि कोई भी गाड़ी का मालिक जो अपनी गाड़ी को केवल अश्वेत यात्रियों को ही ले जाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, टाउन क्लार्क से एक तख्ती प्राप्त कर सकता है जिस पर अश्वेत यात्रियों के लिए शब्द साफ तौर पर छपे होंगे। किसी भी अश्वेत व्यक्ति को सिवा उन रजिस्टर्ड गाड़ियों के जो इस काम के लिए अलग की गई हों और जिन पर पहचान के लिए पहले बताई गई रंगीन तख्ती हो, किसी रजिस्टर्ड गाड़ी में सफर नहीं करने दिया जाएगा।" 19 इतनी सूचना देने के बाद गांधीजी लिखते हैं, "अश्वेत लोगों के विरुद्ध आरेंज रिवर उपनिवेश की सरकार के दुराग्रही रवैये की हमने इतनी बार चर्चा की है कि अपनी बात पर जोर देने के लिए हम उपर्युक्त अंशों की ओर अपने पाठकों का केवल ध्यान आकर्षित कर देते हैं। अधिक टिप्पणी की जरूरत नहीं है।"20इसी तरह गांधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' के 12-11-1903 के अंक में लिखा, "ट्रांसवाल सरकार ने अभी हाल ही में सभी अश्वेत लोगों का नगरपालिका के चुनाव में भाग लेने के अधिकार छीन लिया है। ब्रिटिश भारतीयों पर यह पाबंदी निश्चित ही उन पर लगी पाबंदियों में सबसे महत्वपूर्ण नहीं है किंतु हम इसे ब्रिटिश भारतीयों के विरुद्ध सरकार की जान-बूझकर अख्तियार की गई द्वेषपूर्ण नीति के रूप में देखते हैं।" 21
गांधीजी को इसका बहुत क्षोभ था कि दक्षिण अफ्रीका की ब्रिटिश सरकार बहुत कम सुननेवाली थी। उन्होंने 'इंडियन ओपिनियन' के 21-01-1904 के अंक में लिखा, "एक भारतीय कहावत है, रोये बिना माँ भी बच्चों को दूध नहीं पिलाती। फिर ब्रिटिश सरकार तो और भी कम सुननेवाली है। इसलिए हम आशा करते हैं कि दक्षिण अफ्रीकाभर में हमारे देशवासी ब्रिटिश संविधान के इस पहलू का सावधानी से ध्यान रखेंगे और जब तक पूरा न्याय नहीं होता, तब तक चैन नहीं लेंगे।" 22
गांधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' की पत्रकारिता को लोकोपयोगी बनाने के लिए हरसंभव यत्न किए। उन्होंने उस समय के प्रेरक व्यक्तित्वों पर लेख लिखे। 'इंडियन ओपिनियन' के 06-08-1904 के अंक में गांधीजी ने सर फिरोज शाह मेहता पर लेख प्रकाशित किया है। उसमें उन्होंने लिखा है, "डाक से आए समाचार पत्रों से यह अत्यंत आनन्ददायक समाचार मिला है कि माननीय श्री फिरोजशाह मेहता को 'सर' की उपाधि प्रदान की गई है। अगर कोई व्यक्ति इस सम्मान का पात्र था तो वे निश्चय ही सर फिरोजशाह हैं। उनकी गिनती सबसे पुराने लोक-सेवकों में है। वे बम्बई नगर-निगम के जनक हैं और शायद उस महान निगम का कोई भी अन्य सदस्य उतनी बैठकों में शामिल नहीं हुआ है, जितनी में वे हुए हैं। सर फिरोज शाह मेहता की तरह उतने लम्बे समय तक निगम की सेवा भी किसी अन्य सदस्य ने न की होगी। वे बम्बई महाप्रान्त के बेताज बादशाह हैं और प्रथम नेता माने जाते हैं। भारत के अन्य किसी प्रान्त में किसी भी अन्य व्यक्ति को यह सम्मान प्राप्त नहीं है। उनको अपनी बेमिसाल योग्यता और अनुभव, प्रभावपूर्ण वक्तृत्वकला, व्यवहार-कुशलता और विरोधियों के प्रति अचूक शिष्टता के फलस्वरूप जनता में बड़ी लोकप्रियता और सरकार में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। उन्होंने बम्बई महाप्रान्त के कई कानूनों पर अपनी छाप डाली है, और कलकत्ता-स्थित इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में सेवा का जो थोड़ा-सा मौका उन्हें मिला, उसमें भी अपने लिए एक अनोखा स्थान बना लिया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सर फिरोजशाह मेहता राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ हमेशा सम्बद्ध रहे हैं और दो बार उस संस्था के अध्यक्ष भी बने हैं। इसलिए उनका 'सर' बनाया जाना उन माननीय महानुभाव का जितना सम्मान है, उतना ही कांग्रेस का भी है। हमारा खयाल है कि सरकार ने उनका सम्मान करके खुद अपना सम्मान किया है। किसी कांग्रेस नेता का इस तरह सम्मान पहली ही बार नहीं किया गया है। माननीय श्री गोखले को भी अभी हाल में सी.आई.ई. का खिताब दिया गया है। जैसा कि पाठकों को मालूम है, माननीय गोखले इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में महत्वपूर्ण सेवा करते आ रहे हैं। हम देखते हैं कि हाल ही में खिताब पानेवालों में माननीय शंकरन् नायर का भी नाम है। ये सब शायद समय के सूचक चिह्न हैं। मगर साथ ही इनसे यह भी प्रकट होता है कि सरकार उस अच्छे काम से जो भारतीय समाज के नेताओं द्वारा भारत के भिन्न भिन्न भागों में उसके लिए किया जा रहा है, पूरी तरह परिचित है।" 23
'इंडियन ओपिनियन' के 03-09-1910 के अंक में गांधी जी ने 'द ग्रैंड ओल्डमैन आफ इंडिया' शीर्षक मोनोग्राफ में दादाभाई नौरोजी का संक्षिप्त जीवन दे दिया है। उसमें गांधीजी ने लिखा है, "श्री दादाभाई नौरोजी भारतीयों में ब्रिटिश संसद के सबसे पहले सदस्य थे। उनका जन्म सितम्बर 4, 1825 को बम्बई नगर में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा एनफिन्स्टन सकूल और कॉलेज में हुई और 29 वर्ष की अवस्था में गणित तथा भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर बना दिए गए। यह सम्मान पानेवाले पहले भारतीय भी वे ही थे। सन् 1855 में श्री नौराजी इंग्लैंड में स्थापित होनेवाली प्रथम भारतीय व्यावसायिक संस्था के एक साझेदार के रूप में इंग्लैंड गए। लन्दन के यूनिवर्सिटी कॉलेज ने उनको गुजराती का प्रोफेसर नियुक्त करके सम्मानित किया। श्री नौरोजी ने भारत के लिए जो अनेक सुविधाएँ प्राप्त कीं, उनमें से एक थी, 1870 में भारतीयों को प्रशासनिक सेवा (सिविल सर्विस) में प्रवेश करने की अनुमति। सन् 1874 में वे बड़ोदरा के प्रधानमन्त्री हुए और उसके एक वर्ष बाद ही वे बम्बई निगम और नगरपालिका परिषद के सदस्य चुने गए। इस संस्था की उन्होंने पाँच वर्ष तक बहुमूल्य सेवा की। श्री नौरोजी 1885 से 1887 तक बम्बई विधान-परिषद् के सदस्य रहे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1886, 1893 और 1906 में अध्यक्ष पद पर चुनकर उनको सम्मानित किया। श्री नौरोजी लन्दन के सेन्ट्रल फिन्सबरी निर्वाचन क्षेत्र के उदारदलीय प्रतिनिधि के रूप में 1893 से 1895 तक ब्रिटिश लोक-सभा में रहे; और भारतीय व्यय इत्यादि से सम्बन्धित शाही आयोग (रॉयल कमीशन) के सदस्य के रूप में उन्होंने अपने देश के लिए काफी काम किया। सन् 1897 में उन्होंने वेलबी आयोग के सामने बयान दिया। भारतीय राष्ट्रीय कंग्रेस ने जो ब्रिटिश समिति स्थापित की थी, उसके वे प्रारंभ से ही एक उदयमशील सदस्य और कर्मठ कार्यकर्ता रहे। श्री दादा भाई नौरोजी ने जो पुस्तकें लिखीं, वे ये हैं: 'इंग्लैड्स डयूटी टू इंडिया' 'एडमिशन ऑफ एज्यूकेटेड नेटिव्ज इनटू द इंडियन सिविल सर्विस'; 'फाइनेन्शियल ऐडमिनिस्ट्रेशन ऑफ इंडिया'; और 'पावर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रुल इन इंडिया', यह अंतिम पुस्तक उनकी कृतियों में कदाचित् सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सन 1906 में आदरणीय दादाभाई ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता करने के लिए स्वदेश-यात्रा की। इसमें उन्हें जो परिश्रम करना पड़ा, वह उन जैसे लौह-शरीर और अदम्य उत्साहशील व्यक्ति के लिए भी बहुत अधिक सिद्ध हुआ। सन् 1906 के कलकत्ता अधिवेशन के बाद श्री दादाभाई ने सार्वजनिक जीवन से लगभग अवकाश ले लिया, और सन् 1907 में वरसोवा में जाकर बस गए। वरसोवा बम्बई में मछुआरों का एक छोटा-सा गांव है। वहा बैठे हुए वे अब भी भारत के भविष्य को बनाने अथवा बिगाड़नेवाली घटनाओं को गहरी दिलचस्पी के साथ देखा करते हैं। उन्हें जो 'भारत के पितामह' कहकर सम्मानित किया जाता है सो नि:सन्देह सर्वथा उचित है।" 24
गांधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' में दुनिया भर के महान व्यक्तियों के मोनोग्राफ भी लिखे। 'इंडियन ओपिनियन' में 1905 के विभिन्न अंकों में टालस्टाय, अब्राहम लिंकन, फ्लोरेंस नाइटिंगल, इलिजाबेथ फ्राइ, इश्वरचंद्र विद्यासागर और जार्ज वाशिंगटन के मोनोग्राफ छपे। गांधीजी एक तरफ मोनोग्राफों में यह बताते हैं कि इन महापुरुषों से क्या प्रेरणा ली जा सकती है, तो दूसरी तरफ वे छोटी-छोटी सामान्य चीजों के प्रति भी पाठकों को सचेत करते हैं। पाठकों को सेहत के प्रति सजग बनाने के उद्देश्य से गांधीजी ने 1904 में 'इंडियन ओपिनियन' में आहार विज्ञान पर क्रमबद्ध लेख लिखे थे। 1904 में ही गांधीजी ने जान रस्किन की प्रसिद्ध पुस्तक 'अन टू दिस लास्ट' पढ़ी। उन्होंने उसका गुजराती में 'सर्वोदय' शीर्षक से अनुवाद प्रकाशित किया। गांधीजी ने 'इंडियन ओपिनियन' के जनवरी-फरवरी 1907 के अंकों में नैतिक धर्म पर धारावाहिक आठ लेख प्रकाशित किए।
'इंडियन ओपिनियन' को सत्याग्रह शब्द का संधान करने का श्रेय भी जाता है। 'इंडियन ओपिनियन' के 11 जनवरी 1908 के अंक में जोहानिसबर्ग लेटर नामक स्तंभ में 'पैसिव रेजिस्टेंस' के लिए समानार्थी गुजराती शब्द सुझाने के लिए पाठकों से प्रस्ताव मांगे गए। 'इंडियन ओपिनियन' के सात मार्च 1908 को यह जानकारी दी गई, "सिर्फ चार व्यक्तियों ने नाम भेजा है। इसमें से हमें सिर्फ एक नाम उपयुक्त लगता है। वह है सत्याग्रह।" पहले सदाग्रह नाम का सुझाव आया था जिसे बदलकर सत्याग्रह कर दिया गया। उस नाम का सुझाव देने वाले मगनलाल गांधी थे। गांधीजी ने टालस्टाय के पत्र एक हिंदू के नाम को 'इंडियन ओपिनियन' के 25-12-1909 के अंक में प्रकाशित किया। गांधीजी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते समय एस.एस. किल्डोनन कासल जहाज में 13 नवंबर 1909 को 'हिंद स्वराज' पुस्तक लिखी। उसमें बीस अध्याय हैं। पहले 12 अध्याय पहली बार 'इंडियन ओपिनियन' के 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष अध्याय 18 दिसंबर 1909 के अंक में छपे। पुस्तक मूल रूप से गुजराती में लिखी गई थी। जब वह पुस्तक भारत में प्रतिबंधित की गई तो गांधीजी ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। 'इंडियन ओपिनियन' के 2 अप्रैल 1910 में गांधीजी ने लिखा था, "'हिंद स्वराज' में व्यक्त विचार मेरे हैं लेकिन मैंने विनम्रतापूर्वक इसे तैयार करने में भारतीय दार्शनिकों के अलावा टालस्टाय, रस्किन, थोरो, इनरसन और अन्य लेखकों को शामिल करने का प्रयास किया है।" गांधीजी को लिखे गए टालस्टाय के पत्र 'लेटर टू ए हिंदू' का प्रकाशन 'इंडियन ओपिनियन' के 25 दिसंबर 1909, एक जनवरी 1910 और 8 जनवरी 1910 के अंकों में हुआ।
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह कर भारतवंशियों को अधिकार दिलाने के बाद गांधीजी भारत के लिए रवाना हुए। भारत के लिए रवाना होने के पहले उन्होंने कैपटाउन में रायटर के संवाददाता को एक पत्र सौंपा जो दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों और यूरोपीय समुदाय को संबोधित था। वह पत्र 'इंडियन ओपिनियन' के 29 जुलाई 1914 के अंक में 'फेयरवेल लेटर' शीर्षक से छपा। उसमें गांधीजी ने कहा था, "दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और यूरोपीय समुदाय के लोगों ने मुझे जो प्रेम दिया, वह मुझ पर कर्ज है और कर्जदार के रूप में मैं भारत जा रहा हूं। मैं आश्वस्त करता हूं कि मैं आगे भी सत्य और केवल सत्य की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहूंगा।" 25 उसी पत्र में गांधीजी ने यह भी कहा था, "आठ वर्षों के सत्याग्रह के बाद भारतवंशियों को अधिकार दिलाने में हम सफल हुए। हालांकि अभी भी एक छोटा समूह मानता है कि ये अधिकार पर्याप्त नहीं हैं किंतु वह समूह बहुत छोटा है और उसके मत से मैं सहमत नहीं।" 26 दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष रहने के बाद गांधीजी वहां से 18 जुलाई 1914 को जलपोत से रवाना हुए और इंग्लैंड होते हुए 9 जनवरी 1915 को भारत पहुंचे।
भारत में भी गांधीजी ने सत्याग्रह की शिक्षा देने के उद्देश्य से समाचार पत्र निकाले। उन्होंने दो अगस्त 1919 को अंग्रेजी साप्ताहिक 'यंग इंडिया' का संपादन संभाला। । उन्होंने सात सितंबर 1919 को गुजराती साप्ताहिक 'नवजीवन' का संपादन भार भी संभाल लिया। 'नवजीवन' बाद में हिंदी में भी निकला। 'यंग इंडिया' व 'नवजीवन' निकालने के पहले गांधीजी ने कुछ समय 'क्रॉनिकल' अखबार भी निकाला। गांधीजी ने भारतीय प्रेस अधिनियम के विरोध में 7 अप्रैल 1919 को अपंजीकत समाचार पत्र सत्याग्रही निकाला। उसका दूसरा अंक 14 अप्रैल 1919 को निकला। उसके बाद उसका कोई अंक नहीं निकला। बाम्बे क्रानिकल के संपादक बी.जी. हार्निमैन के देश निकाले के बाद उसके व्यवस्थापकों के आग्रह पर कुछ समय गांधीजी ने उसका संपादन किया। अल्प समय के लिए 'क्रॉनिकल' में काम करने, फिर 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' के संपादन के शुरू होने की कहानी गांधीजी ने इस तरह लिखी है, "मि. हार्निमैन को, जिन्होंने क्रॉनिकल को एक प्रचण्ड शक्ति बना दिया था, सरकार चुरा ले गई और जनता को इसका पता तक न चलने दिया गया। इस चोरी में जो गन्दगी थी, उसकी बदबू मुझे अभी तक आया करती है। मैं जानता हूं कि मि. हार्निमैन अराजकता नहीं चाहते थे। मैंने सत्याग्रह समिति की सलाह के बिना पंजाब सरकार का हुक्म तोड़ा, यह उन्हें अच्छा नहीं लगा था। सविनय कानून भंग को मुलतवी रखने में वे पूरी तरह सहमत थे। उसे मुलतवी रखने का अपना निर्णय मैंने प्रकट किया, इसके पहले ही मुलतवी रखने की सलाह देनेवाला उनका पत्र मेरे नाम रवाना हो चुका था और वह मेरा निर्णय प्रकट होने के बाद मुझे मिला। इसका कारण अहमदाबाद और बम्बई के बीच का फासला था। अतएव हार्निमैन के देश निकाले से मुझे जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही दुःख भी हुआ। इस घटना के कारण क्रॉनिकल के व्यवस्थापकों ने उसे चलाने का बोझ मुझ पर डाला। मि. ब्रेलवी तो थे ही। इसलिए मुझे अधिक कुछ करना नहीं पड़ता था। फिर भी मेरे स्वभाव के अनुसार मेरे लिए यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी हो गई थी। किन्तु मुझे यह जिम्मेदारी अधिक दिन तक उठानी नहीं पड़ी। सरकार की मेहरबानी से 'क्रॉनिकल' बंद हो गया। जो लोग 'क्रॉनिकल' की व्यवस्था के कर्ताधर्ता थे, वे ही लोग 'यंग इंडिया' की व्यवस्था संभालते थे, वे थे उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर। इन दोनों भाइयों ने मुझे सुझाया कि मैं 'यंग इंडिया' की जिम्मेदारी अपने सिर लूं। 'क्रॉनिकल' के अभाव की थोड़ी पूर्ति करने के विचार से 'यंग इंडिया' को हफ्ते में एक बार के बदले दो बार निकालना उन्हें और मुझे ठीक लगा।" 27
गांधीजी पत्रकारिता के माध्यम से अपने देश के लोगों को सत्याग्रह का रहस्य बताने के लिए आकुल- व्याकुल थे। उन्होंने स्वयं लिखा है, "मुझे लोगों को सत्याग्रह का रहस्य समझाने का उत्साह था। पंजाब के बारे में मैं और कुछ नहीं तो कम से कम उचित आलोचना तो कर ही सकता था, और उसके पीछे सत्याग्रह रूपी शक्ति है, इसका पता सरकार को था ही। अतएव इन मित्रों की सलाह मैंने स्वीकार कर ली। किन्तु अंग्रेजी के द्वारा जनता को सत्याग्रह की शिक्षा कैसे दी जा सकती थी? गुजरात मेरे कार्य का मुख्य क्षेत्र था। इस समय भाई इन्दुलाल याज्ञिक उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर की मंडली में थे। वे 'नवजीवन' नामक गुजराती मासिक चला रहे थे। उसका खर्च भी उक्त मित्र पूरा करते थे। भाई इन्दुलाल ने और उन मित्रों ने वह पत्र मुझे सौंप दिया और भाई इन्दुलाल ने इसमें काम करना भी स्वीकार किया। उस मासिक को साप्ताहिक बनाया गया। इस बीच 'क्रॉनिकल' फिर जी उठा, इसलिए 'यंग इंडिया' पुन: साप्ताहिक हो गया।" 28 गुजराती साप्ताहिक 'नवजीवन' सात सितंबर 1919 को गांधीजी के संपादन में निकला जिसमें 'हमारा उद्देश्य' शीर्षक संपादकीय में गांधीजी ने लिखा था, "सत्याग्रह मेरे लिए कोई किताबी चीज नहीं है। वह तो मेरा जीवन है। मुझे सत्य के सिवा किसी और चीज में कोई दिलचस्पी नहीं है। मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि असत्य से देश का कभी भी हित नहीं हो सकता। लेकिन कदाचित असत्य से तात्कालिक लाभ की उपलब्धि होती हो तो भी हमें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए। सत्य की खोज में मेरे चालीस वर्ष व्यतीत हो गए हैं। इस खोज के दौरान मुझे अनेक रत्न मिले हैं। उन्हें मैं भारत के सम्मुख रखना चाहता हूं। 'नवजीवन' उन्हें प्रकाश में लाने का एक माध्यम है।" 29 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' को अलग-अलग स्थानों से निकालने में जो परेशानी पेश आती थी, उसे दूर करने के लिए दोनों एक ही स्थान से निकालने का गांधी जी ने निश्चय किया। उन्होंने इस संदर्भ में लिखा है, "मेरी सलाह के कारण 'यंग इंडिया' को अहमदाबाद ले जाया गया। दो पत्रों के अलग-अलग स्थानों से निकलने में खर्च अधिक होता था और मुझे अधिक कठिनाई होती थी। 'नवजीवन' तो अहमदाबाद से ही निकलता था। ऐसे पत्रों के लिए स्वतंत्र छापखाना होना चाहिए, इसका अनुभव मुझे 'इंडियन ओपीनियन' के सम्बन्ध में हो ही चुका था। इसके अतिरिक्त यहां के उस समय के अखबारों के कानून भी ऐसे थे कि मैं जो विचार प्रकट करना चाहता था, उन्हें व्यापारिक दृष्टि से चलनेवाले छापखानों के मालिक छापने में हिचकिचाते थे। अपना स्वतंत्र छापखाना खड़ा करने का यह भी एक प्रबल कारण था और यह काम अहमदाबाद में ही सरलता से हो सकता था। अतएव 'यंग इंडिया' को अहमदाबाद ले गए। इन पत्रों के द्वारा मैंने जनता को यथाशक्ति सत्याग्रह की शिक्षा देना शुरू किया। पहले दोनों पत्रों की थोड़ी ही प्रतियां खपती थीं। लेकिन बढ़ते-बढ़ते वे चालीस हजार के आस-पास पहुंच गया 'नवजीवन' के ग्राहक एकदम बढ़े, जब कि 'यंग इंडिया' के धीरे-धीरे बढ़े। मेरे जेल जाने के बाद इसमें कमी हुई और आज दोनों की ग्राहक संख्या 8,000 से नीचे चली गई है।" 30
'इंडियन ओपीनियन' में गांधीजी विज्ञापन नहीं लेते थे। उस नीति को उन्होंने 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' में जारी रखा। गांधीजी के ही शब्दों में, "इन पत्रों में विज्ञापन न लेने का मेरा आग्रह शुरू से ही था। मैं मानता हूं कि इससे कोई हानि नहीं हुई और इस प्रथा के कारण पत्रों के विचार स्वातंत्र्य की रक्षा करने में बहुत मदद मिली। इन पत्रों द्वारा मैं अपनी शान्ति प्राप्त कर सका। क्योंकि यद्यपि मैं सविनय कानून भंग तुरन्त ही शुरू नहीं कर सका, फिर भी मैं अपने विचार स्वतंत्रतापूर्वक प्रकट कर सका; जो लोग सलाह और सुझाव के लिए मेरी ओर देख रहे थे, उन्हें मैं आश्वासन दे सका। और, मेरा खयाल है कि दोनों पत्रों ने उस कठिन समय में जनता की अच्छी सेवा की और फौजी कानून के जुल्म को हलका करने में हाथ बंटाया।" 31
जालियांवाला बाग और चौरी चौरा की पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी ने 'यंग इंडिया' के 29 सितंबर 1921 के अंक में 'टैंपरिंग विथ लायलटी', 15 दिसंबर 1921 के अंक में 'द पजल एंड सोल्यूशन' और 23 फरवरी 1922 के अंक में 'शेकिंग द मेन्स' शीर्षक तीन लेख लिखे। उन लेखों के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। छह साल की सजा दी गई। गांधी गिरफ्तार करके 21 मार्च 1922 को पुणे के यरवदा जेल में भेज दिए गए। उसी कारावास के दौरान उन्होंने दो कालजयी पुस्तकें 'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा' और 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' लिखीं जो सबसे पहले 'नवजीवन' में धारावाहिक छपीं। जेल में गांधीजी को एपेंडिसाइटिस की बीमारी हुई तो उनका आपरेशन हुआ और उनकी सेहत को देखते हुए दो साल बाद ही उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
गांधीजी ने 'नवजीवन' तथा 'यंग इंडिया' में अपने जीवन लक्ष्य, उपवास, सत्य, अहिंसा, सर्वोदय, सत्याग्रह, श्रम, औद्योगिकीकरण, समाजवाद, ब्रह्मचर्य, स्वतंत्रता, भारत का ध्येय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समेत अनेक विषयों पर लेख लिखे। गांधीजी की पत्रकारिता का एक सबल पक्ष यह है कि उससे आज के विमर्शों को सही दिशा मिल सकती है। आज के कई विमर्शों के लिए तमाम उपयोगी मूल्य गांधी जी के पत्रकारीय लेखन में मौजूद हैं। उदाहरण के लिए स्त्री विमर्श का संदर्भ लें तो 'यंग इंडिया' के तीन फरवरी 1927 के अंक में गांधीजी ने लिखा था, "सतीत्व किसी ताप गृह में विकसित नहीं होता। पर्दे की दीवार खड़ी करके उसकी रक्षा नहीं की जा सकती। यह अंदर से पैदा होनेवाली चीज है और इसका महत्व तभी है जब यह प्रत्येक अयाचित प्रलोभन का मुकाबला कर सके।"32गांधी जिस आवेग के साथ पर्दा प्रथा का विरोध करते हैं, उसी आवेग के साथ दहेज प्रथा का भी। 'यंग इंडिया' के 21-06-1929 के अंक में उन्होंने लिखा, "दहेज की कुत्सित प्रथा के विरुद्ध जबर्दस्त जनमत तैयार किया जाना चाहिए और जो युवक इस पाप के पैसे से अपने हाथ काले करें, उन्हें समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए।"33गांधी विधवाओं के पुनर्विवाह के भी पैरोकार हैं। 'यंग इंडिया' के 05-08-1926 के अंक में उन्होंने लिखा, "धर्म या प्रथा द्वारा आरोपित वैधव्य एक असहनीय भार है और यह घर को गुप्त पाप से अपवित्र करता है और धर्म का पतन करता है। यदि हमें शुद्ध रहना है और हिंदुत्व की रक्षा करनी है तो हमें इस बलात वैविध्य के विष से अपने आपको मुक्त करना चाहिए।" 34 गांधी जी पूरे बल के साथ वेश्यावृत्ति के सवाल को भी उठाते हैं। वे 'यंग इंडिया' के 28-05-1925 के अंक में लिखते हैं, "वेश्यावृत्ति उतनी ही पुरानी है जितनी यह दुनिया, लेकिन आज यह जिस प्रकार नगर जीवन का एक नियमित लक्षण बन गई है, वैसी शायद पहले कभी नहीं थी। जो भी हो, एक वक्त ऐसा जरूर आएगा जब मानवता इस अभिशाप के विरुद्ध विद्रोह कर देगी और वेश्यावृत्ति बीते जमाने की चीज हो जाएगी। मानवता ने अनेक कुरीतियों से, भले ही वे बहुत अर्से से चली आ रही हों, इसी तरह छुटकारा पाया है।" 35 गांधीजी वेश्यागामी पुरुषों को भी पाप का भागीदार मानते हैं। वे 'हरिजन' के 15-09-1946 के अंक में लिखते हैं, "वेश्या शब्द व्याभिचारिणी स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है। लेकिन वेश्यागामी पुरुष भी उन स्त्रियों से कम पाप के भागी नहीं हैं जो अनेक मामलों में अपना पेट भरने के लिए ही अपने शरीर को बेचती हैं। इस कुप्रथा को अवैध घोषित कर देना चाहिए।" 36
स्त्रियों के विरुद्ध अपराध सवाल ने गांधी को बेतरह उद्वेलित किया था। औरत की आबरू के बारे में गांधीजी ने 'हरिजन' के 01-03-1942 के अंक में लिखा था, "जो स्त्री निर्भय है और यह जानती है कि उसकी चारित्रिक निर्मलता उसकी सबसे बड़ी ढाल है, उसकी आबरू कभी नहीं लूट सकती। पुरुष कितना ही पाशविक हो, वह उसकी निर्मलता के अग्निस्तंभ के सामने शर्म से झुक जाएगा।" 37 इसी टिप्पणी में गांधीजी ने लिखा था, "जब स्त्री पर आक्रमण हो तो उसे हिंसा, अहिंसा की बात नहीं सोचनी चाहिए। उसका प्रमुख कर्तव्य अपनी रक्षा करना है।" 38 "अपनी आबरू तो बचाने के लिए जो भी उपाय उसे सूझे, वह उसे अपनाए। ईश्वर ने उसे नाखून और दांत दिए हैं। उसे अपनी पूरी ताकत के साथ उनका इस्तेमाल करना चाहिए और जरूरी हो तो इस प्रयास में जान दे देनी चाहिए।" 39
इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्री से जुड़े प्रश्नों को गांधीजी अपने पत्रकारीय लेखन में पूरी शक्ति से उठाते हैं। समाज में स्त्रियों की स्थिति और भूमिका के बारे में गांधी जी की सुचिंतित टिप्पणियां आज भी वे उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय थीं। यही बात गांधी जी के दलित संबंधी लेखन के लिए भी सही है।
गांधी जी हरिजनों का उद्धार चाहते थे, इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। हरिजन सेवक संघ की स्थापना और उसके बैनर तले सेवा कार्यों से लेकर 'हरिजन' का प्रकाशन इसका प्रमाण है। यह इतिहास स्वीकृत तथ्य है कि 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' के बंद होने के उपरांत गांधी जी ने हरिजनों के उद्धार के लिए 11 फरवरी 1933 को 'हरिजन' नामक अंग्रेजी साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला। गांधी जी की प्रेरणा से 'हरिजन' कतिपय भारतीय भाषाओं में भी निकला। हिंदी में वह 'हरिजन सेवक', गुजराती में 'हरिजन वंधु' और मराठी में 'मराठी हरिजन' नाम से निकला। इसके अलावा देशभर में गांधीजी ने हरिजन सेवक संघ की शाखाएं बनाईं। संघ की अछूतोद्धार संबंधी साप्ताहिक गतिविधियों की जानकारी 'हरिजन' के हर अंक में दी जाती थी। 11 फरवरी 1933 को निकले 'हरिजन' के प्रवेशांक की संपादकीय में ही गांधी जी ने 'अस्पृश्यता' शीर्षक संपादकीय लिखी और उसमें स्पष्ट कहा कि जातीय छूआछूत शास्त्रों के खिलाफ है। प्रवेशांक में ही गांधी ने सात पंडितों के हस्ताक्षर का एक पत्र प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि चारों वर्णों में जो समान अधिकार हैं, उनका अधिकार हरिजन को मिलना चाहिए। ये अधिकार हैं-मंदिर प्रवेश, शालाओं में शिक्षा, सार्वजनिक कुओं, घाटों, तालाबों और नदियों में निस्तार सुविधा। गांधी जी ने 'हरिजन' के प्रवेशांक के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर से संदेश भेजने को कहा तो उत्तर में अम्बेडकर ने सात फरवरी 1933 को लिखे पत्र के रूप में संदेश की जगह टिप्पणी भेजी। उसमें उन्होंने कहा, "दलित वर्ग वर्ण व्यवस्था का प्रति उत्पाद है और जब तक वर्ण व्यवस्था रहेगी, दलित वर्ग बने रहेंगे। इसलिए जाति प्रथा की समाप्ति ही दलितों के लिए एकमेव स्वीकार्य बात है और आनेवाले संघर्ष में यही तत्व हिंदुओं की रक्षा करेगा और उनके अस्तित्व को सुनिश्चित करेगा।" 'हरिजन' में सभी राज्यों में हरिजन उत्थान के लिए किए गए कार्यों का विवरण छपता था। 'हरिजन' के आरंभिक अंकों को देखने से ज्ञात होता है कि प्रथम हरिजन दिवस 18 दिसंबर 1932 को मनाया गया था किंतु उस दिन किए गए कार्यों से गांधी जी संतुष्ट नहीं थे। द्वितीय हरिजन दिवस अप्रैल 1933 के अंतिम रविवार को मनाया गया। उसके लिए उन्होंने छह कार्यक्रम घोषित किए थेः 1. हरिजन दिवस प्रातः पांच बजे प्रार्थनाओं से प्रारंभ हो और हरिजनों के लिए कुछ राशि, कपड़े और अनाज अलग निकालकर जरूरतमंदों को दिया जाए। जो गरीब हैं और ऐसा करने में असमर्थ हैं, उन्हें उपवास रखना चाहिए चाहे एक समय का ही क्यों न हो। 2. भंगियों का काम स्वयं किया जाए या उनके कार्य में हाथ बंटाया जाए। 3. घर-घर जाकर राशि या सामग्री दान स्वरूप प्राप्त की जाए। इसके बाद हरिजन बस्तियों में जाकर उनके घरों की सफाई की जाए। 4. हरिजनों की बैठक लेकर उनकी जरूरतों की जानकारी प्राप्त की जाए। 5. हरिजनों और सवर्णों की संयुक्त बैठकें आयोजित कर अछूतोद्धार के कार्यों संबंधी प्रस्ताव भी पारित किए जाएं। 6. जहां जनमत का समर्थन हो, वहां हरिजनों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने दिया जाए और निजी मंदिर हरिजनों के लिए खोल दिए जाएं। इन सबके बाद इस दिन किए गए सभी कार्यों की रिपोर्ट प्रकाशनार्थ 'हरिजन' को भेजी जाए। द्वितीय हरिजन दिवस देशभर में मनाए जाने की रिपोर्ट 'हरिजन' के अंकों में छापी गई। द्वितीय हरिजन दिवस मनाने के बाद भी गांधी जी इस बात को लेकर दुःखी थे कि उस दिवस को सभी देशवासियों का समर्थन नहीं मिला। इसी सवाल पर उन्होंने 8 मई से 29 मई 1933 तक 21 दिनों का अनशन किया। अपने अनशन के नतीजों पर संतोष जताते हुए गांधी जी ने 8 जुलाई 1933 के 'हरिजन' की संपादकीय में लिखा, "अपने पाठकों को मुझे यह सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि मेरे अनशन से हरिजन भी उद्वेलित हुए हैं।"
गांधी जी की दलित चिंता की पुष्टि अपना मैला साफ करने से लेकर अगले जन्म में हरिजन महिला के रूप में पैदा होने की उनकी इच्छा से भी होती है। गांधी ने 'यंग इंडिया' में लिखा था, "मैं फिर से जन्म नहीं लेना चाहता लेकिन मेरा पुनर्जन्म हो ही तो मैं अछूत पैदा होना चाहूंगा ताकि मैं उनके दुःखों, कष्टों और अपमानों का भागीदार बनकर स्वयं को और उन्हें इस दयनीय स्थिति से छुटकारा दिलाने का प्रयास कर सकूं। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र में न हो, बल्कि अतिशूद्र में हो।"40छूआछूत उन्मूलन के लिए गांधी अपनी पत्नी तक को छोड़ने पर भी विचार करने से नहीं हिचकते। 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था, "अपनी पत्नी के साथ बंधन में बंधने से बहुत पहले ही मैं छूआछूत उन्मूलन के कार्य के साथ बंध गया था। हमारे संयुक्त जीवन में दो ऐसे अवसर आए जब अछूतोद्धार और पत्नी के साथ रहने के बीच एक चीज को चुनना था और मैं अछूतोद्धार को ही चुनता। लेकिन मैं अपनी पत्नी का आभारी हूँ जिसने संकट को टाल दिया। मेरे आश्रम में, जो मेरा परिवार है, कई अछूत हैं और एक प्यारी नटखट लड़की तो मेरी अपनी बेटी की तरह ही रहती है।4 1 गांधी लिखते हैं, "लोगों के प्रति प्रेम में छूताछूत की समस्या मेरे बाल्यकाल में ही उठा दी थी। मेरी मां ने कहा, इस बच्चे को मत छूना यह अछूत है। 'क्यों न छूऊँ?' मैंने पटलकर पूछा और उसी दिन से मेरा विद्रोह आरंभ हो गया।4 2 गांधी ने जिस स्वराज्य के लिए लंबा संघर्ष किया, उसे भी छूआछूत रहने पर वे बेकार मानते हैं। 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था, "यदि हम भारत की जनसंख्या के पांचवें हिस्से को सदा के लिए पराधीन रखना चाहें और उन्हें राष्ट्रीय संस्कृति की उपलब्धियों से जान-बूझकर वंचित रखें, तो स्वराज्य बेकार है। हम इस महान शुद्धि आंदोलन में भगवान की सहायता चाहते हैं, लेकिन उसकी सृष्टि के सर्वाधिक सुपात्र प्राणियों को मानवता के अधिकार देना नहीं चाहते। यहि हम स्वयं अमानवीय हैं तो दूसरों की अमानवीयता से मुक्ति पाने के लिए ईश्वर से याचना कैसे कर सकते हैं? 43 गांधी मानते थे कि धर्म के पवित्र नाम पर मनुष्य को उत्पीड़ित करते जाना कट्टर हटधर्म के अलावा और कुछ नहीं हैं।4 4 गांधी जी का बल छूआछूत मिटाने के लिए हिंदू धर्म में सुधार लाने पर था। उन्होंने 'यंग इंडिया' में लिखा था, "हिंदू धर्म के सुधार और उसके वास्तविक संरक्षण के लिए, छूआछूत को मिटाना सबसे आवश्यक बात है... छूआछूत को मिटाना... एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।4 5 अगर छूआछूत कायम रहती है तो हिंदू धर्म को खत्म हो जाना चाहिए।4 6 गांधी लिखते हैं, "मैं तो यहा तक कहूंगा कि छूआछूत कायम रहने से हिंदू धर्म का खत्म हो जाना ही अच्छा है।47गांधी जी छूआछूत को खत्म कर मानव जाति के पुनरुद्धार का सपना देखते थे। 'हरिजन' में उन्होंने लिखा था, "छूआछूत से लड़ने और उस संघर्ष के लिए स्वयं को अर्पित करने में मेरी आकांक्षा मानव जाति के संपूर्ण पुनरुद्धार की है। वह सीपी में चांदी के आभास की तरह, मात्र एक स्वप्न भी हो सकता है। लेकिन मेरे लिए मेरी यह आकांक्षा यथार्थ है, अतः यह स्वप्न नहीं है। रोमां रोलां के शब्दों में 'विजय लक्ष्य की प्राप्ति में नहीं, अपितु उसके लिए अथक प्रयास में निहित होती है।" 48
अस्पृश्यता को तो गांधी जी खत्म करना चाहते हैं किंतु वर्ण व्यवस्था को नहीं।छूआछूत और जाति पर उन्होंने लिखा, "अछूतों के कारण जाति-व्यवस्था को समाप्त करना उतना ही गलत है, जितना कि किसी भद्दी अंग वृद्धि के लिए शरीर को और खर-पतवार की वजह से फसल को नष्ट कर देना। इसलिए, जिसे हम अछूतपन कहते हैं, उसे पूर्णतया नष्ट कर दिया जाना चाहिए। यदि सारी व्यवस्था को नष्ट होने से बचाना है तो इस अतिरेक का उच्छेदन आवश्यक है। छूआछूत जाति व्यवस्था के कारण उत्पन्न नहीं हुई, बल्कि हिंदू धर्म में ऊंच-नीच के भेदभाव के कारण उत्पन्न हुई है और इसे नष्ट कर रही है। इसलिए छूआछूत पर आक्रमण इस 'ऊंच-नीच' पने पर आक्रमण है। जिस क्षण छूआछूत का अन्मूलन हो जाएगा, जाति-व्यवस्था स्वयं शुद्ध हो जाएगी अर्थात, मेरे स्वप्न के अनुसार, सच्चे वर्ण धर्म की स्थापना हो जाएगी। समाज के चार भाग परस्पर पूरक होंगे जिनमें कोई किसी से श्रेष्ठ अथवा हीन नहीं होगा और प्रत्येक भाग हिंदू धर्म की समूची काया के लिए समान रूप से आवश्यक होगा।" 49
वर्णाश्रम धर्म में अपनी आस्था के लिए जो गांधी जी तर्क देते हैं, वह बहसतलब है। वे लिखते हैं,"वर्णाश्रम धर्म पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन-ध्येय को परिभाषित करता है। मनुष्य धन-संपदा जुटाने और आजीविका के विभिन्न साधनों की खोज करते रहने के लिए बारंबार देह धारण नहीं करता, यह इसलिए देह धारण करता है कि अपनी ऊर्जा का एक-एक अणु अपने स्रष्टा को जानने में खर्च कर दे। अतः उसे, अपनी प्राण रक्षा के निमित्त, अपने पूर्वजों के व्यवसाय तक ही अपने को सीमित रखना चाहिए। वर्णाश्रम धर्म यही है। न इससे ज्यादा, न कुछ कम।" 50 गांधी कहते हैं, "पैतृक व्यवसायों पर आधारित वर्ण व्यवस्था में मुझे विश्वास है। चार वर्ण चार सार्वभौम व्यवसायों से जुड़े हैं- ज्ञान देना, असहायों की रक्षा करना, कृषि और वाणिज्य कर्म तथा शारीरिक श्रम द्वारा सेवाएं प्रदान करना। ये चार व्यवसाय सारी मानव जाति में समान रूप से विद्यमान हैं। लेकिन हिंदू धर्म ने इन्हें हमारे अस्तित्व का नियम मानते हुए, सामाजिक संबंधों और व्यवहार को नियमन के लिए इनका इस्तेमाल किया है। गुरुत्वाकर्षण का नियम हम सभी को प्रभावित करता है, हम उसके अस्तित्व से परिचित हों या न हों। लेकिन जो वैज्ञानिक इस नियम से अवगत हैं, उन्होंने इसकी प्रयुक्ति से ऐसी-ऐसी चीजें निकाली हैं कि दुनिया हैरत में है। इसी प्रकार, हिंदू धर्म ने वर्ण के नियम की खोज और प्रयुक्ति से सारी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया। जब हिंदू जड़ता के शिकार थे तब वर्ण-व्यवस्था के दुरुपयोग के फलस्वरूप असंख्य जातियां पैदा हो गईं और अंतर्जातीय विवाहों तथा अंतर्जातीय भोजों को लेकर अनावश्यक और हानिकर प्रतिबंध लगा दिए गए। वर्ण-व्यवस्था का इन प्रतिबंधों से कोई लेना-देना नहीं है। विभिन्न वर्णों के लोग परस्पर विवाह कर सकते हैं और एक-दूसरे के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं। ये प्रतिबंध शुद्धता और सफाई के हित में आवश्यक हो सकते हैं पर यदि कोई ब्राह्मण लड़का शूद्र लड़की से विवाह करता है या शूद्र लड़का ब्राह्मण लड़की से विवाह करता है तो इससे वर्ण के नियम का कोई उल्लंघन नहीं होता।" 51 गांधी का जोर शुद्धीकरण पर है। वे लिखते हैं, "आज ब्राह्मण और क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र केवल नाम की चिप्पियां हैं। जहां तक मैं समझता हूँ, वर्ण-व्यवस्था पूरी गड्डमगड्ड हो गई है और अच्छा हो, यदि सभी हिंदू स्वेच्छा से अपने को शुद्ध करना आरंभ कर दें। ब्राह्मणवाद की सच्चाई को साबित करने और सच्चे वर्ण-धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने का यही एकमात्र उपाय है।" 52
गांधी जी कहते हैं, "मैं मानता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति इस संसार में कुछ सहज प्रवृत्तियां लेकर पैदा होता है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ निश्चित कमियां भी लेकर पैदा होता है जिन्हें वह दूर नहीं कर सकता। इन कमियों का सावधानी के साथ प्रेक्षण करने के फलस्वरूप ही वर्ण का नियम प्रतिपादित किया गया। इसने कतिपय प्रवृत्तियों वाले कतिपय लोगों के लिए कतिपय कार्य-क्षेत्र निश्चित कर दिए। लोगों की सहज कमियों को स्वीकार करते हुए भी, वर्ण के नियम में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं माना गया है, बल्कि इसने एक ओर तो प्रत्येक व्यक्ति को उसके परिश्रम का फल मिले, इसकी गारंटी दी और दूसरी ओर, उसे अपने पड़ोसियों पर दबाव डालने से रोका। इस महान नियम को विकृत कर दिया गया है और यह बदनाम हो चुका है। लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि जब इस नियम के निहितार्थों को पूरी तरह समझ कर इसे लागू किया जाएगा तभी आदर्श सामाजिक व्यवस्था विकसित हो सकेगी।" 53 लेकिन इसी के समानांतर गांधी जी अंतर्जातीय विवाह और अंतर्जातीय भोज के पक्ष में अपनी राय देते हैं। वे लिखते हैं, "यद्यपि वर्णाश्रम में अतंर्जातीय विवाह और अंतर्जातीय भोज पर कोई पाबंदी नहीं है, पर इसमें कोई बाध्यता लागू नहीं की जा सकती। आदमी कहां शादी करे और किसके साथ भोजन करे, इसका फैसला करने के लिए उसे आजाद छोड़ देना चाहिए।" 54
गांधी जी चार विभाजनों की वकालत करते हैं। वे लिखते हैं, "मैं चार विभाजनों को ही मौलिक, स्वाभाविक और आवश्यक मानता हूं। असंख्य उपजातियां कभी-कभी सुविधाजनक हैं, पर प्रायः ये अवरोधक सिद्ध होती हैं। इनका विलयन जितनी जल्दी हो जाए, उतना ही अच्छा है।55गांधी जी कहते हैं, "आर्थिक दृष्टि से, एक जमाने में जाति का बड़ा महत्व था। इससे पैतृक कौशल की रक्षा होती थी और प्रतियोगिता मर्यादित रहती थी। यह कंगाली को दूर रखने का सर्वोत्तम उपाय था। इसमें व्यापार श्रेणियों के सभी लाभ थे। यद्यपि इससे साहस अथवा आविष्कार को बढ़ावा नहीं मिलता था, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह उनके मार्ग में बाधक थी..ऐतिहासिक दृष्टि से, जाति-व्यवस्था को भारतीय समाज की प्रयोगशाला में मनुष्य का प्रयोग या सामाजिक संमजन कहा जा सकता है। यदि हम इसे सफल सिद्ध कर सकें तो इसे संसार को उसकी काया पलटने, निर्मम प्रतियोगिता को समाप्त करने और धनलोलुपता तथा लालच से उत्पन्न होने वाले सामाजिक विघटन को रोकने के सर्वोत्तम साधन के रूप में पेश कर सकते हैं।"56जाति और वर्ण के बारे में गांधी लिखते हैं, "मैंने प्रायः कहा है कि मैं जाति का जो आधुनिक अर्थ है, उसमें विश्वास नहीं करता। यह अनावश्यक है और प्रगति के लिए बाधक है। न मैं मनुष्यों के बीच असमानताओं में विश्वास करता हूं। हम सब बिल्कुल बराबर हैं। लेकिन समानता आत्माओं की है, शरीरों की नहीं। अत: यह एक मानसिक स्थिति है। हमें समानता हासिल करनी है। एक व्यक्ति का स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ समझना ईश्वर और मानव के प्रति पाप है। अतः जाति, जहां तक वह ऊंच-नीच का भेद करती है, एक बुराई है।" 57
गांधी ने 'द हिंदू' के 19-09-1945 के अंक में लिखा, "जाति-भेद ने हमारे अंदर इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि उससे भारत के मुसलमान, ईसाई और अन्य धर्मावलंबी भी कुप्रभावित हो गए हैं। वैसे, जातिगत अवरोध कमोवेश मात्रा में दुनिया के अन्य भागों में भी पाए जाते हैं, इसका अर्थ यह है कि इस बीमारी से पूरी मानव जाति ग्रस्त है। इससे सच्चे अर्थ में धर्म की स्थापना करके ही दूर किया जा सकता है। मुझे किसी धर्म ग्रंथ में ऐसे अवरोधों और भेदभावों का विधान नहीं मिला। धर्म की दृष्टि में सभी मनुष्य बराबर हैं। विद्या, बुद्धि या धन के कारण कोई व्यक्ति अपने को उनसे श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता जिनके पास इनका अभाव है। यदि कोई व्यक्ति सच्चे धर्म के शुचिकारी तत्व और अनुशासन से आप्लावित और पवित्रीकृत है तो उसे चाहिए कि अपने से कम भाग्यशाली लोगों से साथ अपने लाभों को बांटने का दायित्व निभाए। इस दृष्टि से, अपनी वर्तमान पतित अवस्था में, सच्चे धर्म का तकाजा है कि हम सब स्वेच्छा से अतिशूद्र बन जाएं। हमें स्वयं को अपने धन का स्वामी नहीं, बल्कि न्यासी मानना चाहिए और अपनी सेवा के उचित पारिश्रमिक से अधिक को अपने पास न रखते हुए शेष को समाज-सेवा पर लगा देना चाहिए। इस व्यवस्था में, न कोई अमीर होगा, न कोई गरीब। सभी धर्म समकक्ष माने जाएंगे। धर्म, जाति या आर्थिक शिकायतों को लेकर उठने वाले तमाम झगड़े विश्व शांति को भंग करना बंद कर देंगे।" इस तरह गांधी सच्चे मन से जाति भेद से टकराते हैं। वे सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ते। गांधीजी ने सत्य को हासिल किया था और उसे हासिल करने का मार्ग भी बताया है। उन्होंने लिखा है, "जिस व्यक्ति में विनम्रता कूट-कूट कर न भरी हो, उसे सत्य नहीं मिल सकता। यदि तुम्हें सत्य के सागर में तैरना है तो तुम्हें अपनी हस्ती को पूरी तरह मिटा देना होगा।" 58 उन्होंने सब कुछ ठीक होने का मार्ग भी बताया है। उन्होंने लिखा है, "केवल सत्य, प्रेम और अहिंसा ही महत्वपूर्ण हैं। जहां ये हैं, वहां अंततः सब कुछ ठीक हो जाएगा।" 59 गांधी जी सत्य को सर्वोच्च सिद्धांत मानते हैं। वे सत्य को ईश्वर मानते हैं। उन्होंने लिखा है, "जहां तक मेरा संबंध है, ईश्वर सत्य है। लेकिन दो वर्ष पहले मैंने एक कदम और आगे बढ़कर कहा कि सत्य ईश्वर है। इन दो कथनों-ईश्वर सत्य है और सत्य ईश्वर है, के सूक्ष्म भेद को आप समझें। मैं इस निष्कर्ष पर लगभग पचास वर्ष तक सत्य की निरंतर खोज करते रहने के बाद पहुंचा हूं।"60गांधी का संपूर्ण जीवन सत्य का प्रयोग करते ही बीता। उनकी पत्रकारिता भी संपूर्ण सत्य पर आधारित थी। कहने की जरूरत नहीं कि आज के फेकन्यूज, पोस्ट ट्रुथ और पेड न्यूज के इस तिमिर दौर में गांधीजी की पत्रकारिता से ही प्रेरणाएं ली जा सकती हैं।
संदर्भ
1. गांधीजी (1968), दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-164
2. गांधी, मो.क. (1957), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-284
3. वही, पृष्ठ-285
4. इंडियन ओपिनियन, 4 जून 1903, संपूर्ण गांधी वाडमय खंड तीन, पृष्ठ-406
5. वही, पृष्ठ-409
6. गांधीजी (1968), दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-164
7. वही, पृष्ठ-165
8. वही
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10. वही
11. वही, पृष्ठ-167
12. वही
13. गांधी, मो.क. (1957), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-285
14. वही, पृष्ठ-286
15. वही
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18. 'इंडियन ओपिनियन', 8-10-1903, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 4, पृष्ठ-6
19. 'इंडियन ओपिनियन', 16-04-1904, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 4, पृष्ठ-220
20. वही, पृष्ठ-221
21. 'इंडियन ओपिनियन', 12-11-1903, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 4, पृष्ठ-47
22. 'इंडियन ओपिनियन', 21-01-1904, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 4, पृष्ठ-150
23. 'इंडियन ओपिनियन', 06-08-1904, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 4, पृष्ठ-308
24. 'इंडियन ओपिनियन', 03-09-1910, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 10, पृष्ठ-335
25. 'इंडियन ओपिनियन', 29 जुलाई 1914, पृष्ठ-1
26. वही
27. गांधी, मो.क. (1957), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-472
28. वही, पृष्ठ-473
29. 'नवजीवन', 07-09-1919, संपूर्ण गांधी वाडमय, खंड 16, पृष्ठ-98
30. गांधी, मो.क. (1957), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, अहमदाबादः नवजीवन मुद्रणालय, पृष्ठ-473
31. वही, पृष्ठ-474
32. 'यंग इंडिया', 03-02-1927, पृष्ठ-37
33. 'यंग इंडिया', 21-06-1929, पृष्ठ-207
34. 'यंग इंडिया', 05-08-1926, पृष्ठ-276
35. 'यंग इंडिया', 28-05-1925, पृष्ठ-187
36. 'हरिजन', 15-09-1946, पृष्ठ-310
37. 'हरिजन', 01-03-1942, पृष्ठ-60
38. वही
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40. 'यंग इंडिया', 04-05-1921, पृष्ठ-144
41 . वही, 05-11-1931, पृष्ठ-341
42. 'हरिजन', 24-12-1938, पृष्ठ-393
43. 'यंग इंडिया', 25-05-1921, पृष्ठ--165
44. वही, 11-03-1926, पृष्ठ-95
45. वही, 06-01-1927, पृष्ठ-2
46. 'हरिजन', 28-09-1947, पृष्ठ-349
47. 'यंग इंडिया', 26-11-1931, पृष्ठ-372
48. 'हरिजन', 25-03-1933, पृष्ठ-3
49. वही, 11-02-1933, पृष्ठ-3
50. 'यंग इंडिया', 27-10-1927, पृष्ठ-357
51. वही, 04-06-1931, पृष्ठ-129
52. 'हरिजन', 25-03-1933, पृष्ठ-3
53. 'माडर्न रिव्यू', अक्टूबर 1935, पृष्ठ-413
54. 'हरिजन', 16-11-1935, पृष्ठ-316
55. 'यंग इंडिया', 08-12-1920, पृष्ठ-3
56. वही, 05-01-1921, पृष्ठ-2
57. वही, 04-06-1931, पृष्ठ-129
58. वही, 31-12-1931, पृष्ठ-428
59. वही, 18-08-1927, पृष्ठ-265
60. वही, 31-12-1931, पृष्ठ-427-428